सामाजिक खबरें नरक चतुर्दशी: नरकासुर वध तथा सोलह हजार बंदी युवतियों की मुक्ति का पर्व 3rd November 2021 networkmahanagar 🔊 Listen to this आज छोटी दिवाली है। शास्त्रीय भाषा में इसे नरक चतुर्दशी या रूप चतुर्दशी कहा जाता है। आज के इस उत्सव की पृष्ठभूमि में यह पौराणिक कथा है कि प्राग्ज्योतिषपुर के शक्तिशाली असुर सम्राट नरकासुर ने स्वर्गलोक के राजा देवराज इन्द्र को पराजित कर उनको स्वर्ग से बाहर निकाल दिया था! उसके बाद देवताओं तथा ऋषियों के घरों की सोलह हजार से ज्यादा कन्याओं का अपहरण कर उन्हें अपने रनिवास में रख लिया था। देवताओं की सम्मिलित शक्ति भी उसे पराजित नहीं कर सकी। नरकासुर को किसी देवता अथवा पुरूष से अजेय होने का वरदान प्राप्त था। उसे कोई स्त्री ही मार सकती थी। हताश सभी देवता…सहायता की याचना लेकर जब भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुंचे तो उनकी दुर्दशा और श्रीकृष्ण की उलझन देखकर श्रीकृष्ण की एक पत्नी सत्यभामा सामने आई। श्रीकृष्ण के रनिवास की वह एकमात्र योद्धा थी जिसके पास कई-कई युद्धों में भाग लेने का अनुभव था। उन्होंने नरकासुर से युद्ध की चुनौती स्वीकार की और श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर युद्ध में उतर गईं। भीषण संघर्ष के बाद उन्होंने नरकासुर को पराजित कर उसे मार डाला। नरकासुर के मरने के बाद उसके रनिवास में बंदी सभी स्त्रियों को मुक्त करा लिया गया। सत्यभामा और श्रीकृष्ण के द्वारका लौटने के बाद घर-घर दीये जलाकर स्त्रियों की मुक्ति का उत्सव मनाया गया। सोलह हजार युवतियों की मुक्ति भौमासुर भूमि माता का पुत्र था। जिस समय विष्णुजी ने वराह अवतार लेकर भूमि को समुद्र से निकाला था, उसी समय उनके और भूमि देवी के संयोग से एक पुत्र ने जन्म लिया था। भूमि पुत्र होने के कारण वह भौम कहलाया। पर पिता एक परम देव और धरती जैसी पुण्यात्मा माता होने के बावजूद अपनी क्रूरता के कारण उसका नाम भौमासुर पड़ गया! पर दिनोदिन उसका व्यवहार पशुओं से भी ज्यादा क्रूर, निर्मम और अधम होता चला गया उसकी इन्हीं करतूतों के कारण उसे नरकासुर कहा जाने लगा। कहते हैं जब रावण का वध हुआ उसी दिन पृथ्वी के गर्भ से उसी स्थान पर नरकासुर का जन्म हुआ, जहाँ सीता जी का जन्म हुआ था। सोलह वर्ष की आयु तक राजा जनक ने उसे पाला; बाद में पृथ्वी उसे ले गई और विष्णु जी ने उसे प्रागज्योतिषपुर का राजा बना दिया। जो आज का असम प्रदेश है। नरकासुर ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या कर के वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे देव-दानव-असुर-मनुष्य कोई नहीं मार सकेगा। कुछ दिनों तक तो नरकासुर ठीक से राज्य करता रहा, किन्तु समय की लीला तथा वाणासुर के सानिद्ध्य के कारण उसमें सारे अवगुण राक्षसों के भर गए। जब नरकासुर के त्रास से जगत को चैन और शान्ति मिली उसी की खुशी में दूसरे दिन अर्थात कार्तिक मास की अमावस्या को लोगों ने अपने घरों में दीए जलाए। तभी से नरक चतुर्दशी तथा दीपावली का त्योहार मनाया जाने लगा। एक परंपरा के तहत स्त्रियों की मुक्ति का उत्सव मगर इसका अर्थ और सबक हम भूल चुके हैं। नरकासुर का प्रेत हमारे भीतर आज भी अट्टहास कर रहा है। उत्सव के साथ आज का दिन हमारे लिए खुद से यह सवाल पूछने का अवसर भी है कि क्या उस घटना के हजारों साल बाद भी हम स्त्रियों को अपने भीतर मौजूद वासना और पुरूष-अहंकार जैसे नरकासुरों की कैद से मुक्ति दिला पाए हैं? आज के ही दिन श्रीकृष्ण जी ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से तीनों लोकों में हाहाकार मचाने वाले नरकासुर का वधकर उसके बंदीगृह से सोलह हजार युवतियों को मुक्त करवाया था। नरक चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल में सूर्योदय से पूर्व उबटन लगाकर नीम, चिचड़ी जैसे कड़ुवे पत्ते डाले गए जल से स्नान का अत्यधिक महत्व है। इस दिन सूर्यास्त के पश्चात लोग अपने घरों के दरवाजों पर चौदह दीये जलाकर दक्षिण दिशा में उनका मुख करके रखते हैं तथा पूजा-पाठ करते हैं। Post Views: 274