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वरिष्ठ समाजसेवी ‘सेठ बाबू’ के निधन पर शोक की लहर!

मुंबई: ‘नवभारत टाइम्स’ के वरिष्ठ संवाददाता नवीन कुमार पांडेय के दादाजी जालिकराम पांडेय उर्फ सेठ बाबू का बुधवार को एक निजी अस्पताल में निधन हो गया। वे 85 वर्ष के थे। उनके निधन से मुंबई से लेकर उत्तर प्रदेश तक शोक की लहर है। मंगलवार को उनका (कोविड-19) टेस्ट निगेटिव आया था।
ज्योतिषाचार्य डॉ. बालकृष्ण मिश्र के मार्गदर्शन में उनके छोटे पुत्र नित्यानंद पांडेय ने उन्हें मुखाग्नि दी। बुधवार को परिवार और समाज के तमाम लोगों की उपस्थिति में सेठ बाबू का अंतिम संस्कार किया गया। पौत्र नवीन पांडेय, विनय पांडेय, रजनीश पांडेय, प्रवीण पांडेय, ‘अपना पूर्वांचल महासंघ’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक कुमार दुबे, राकांपा नेता पारसनाथ तिवारी, पत्रकार अरविंद त्रिपाठी, तुलसी मानस जूनियर कॉलेज के प्रिंसिपल अमित सिंह, चंद्रेश दुबे, सर्वेश शुक्ल, आशीष तिवारी, अवधेश मिश्र, रामआसरे शर्मा, मनोज पांडेय, अशोक सिंह, संदीप दुबे, प्रदीप दुबे सहित समाज के अन्य लोग उपस्थित थे।

ऐसा था व्यक्तित्व!
सेठ बाबू बहुत ही मिलनसार, संवेदनशील व्यक्ति थे। वे जिनसे बात कर लेते थे, वह उनका कायल हो जाता था। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले स्थित मड़ियाहूं तहसील के रायभानपुर गांव में हुआ था। वे 7 भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। कुछ ही महीने पहले उनके बड़े भाई की मृत्यु हुई थी। सेठ बाबू के निधन से परिवार का एक पीढ़ी समाप्त हो गया। उन्होंने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया। जन्म के कुछ महीने के बाद उनके माताजी की मौत हो गई थी। कुछ वर्ष तक उनकी परवरिश चाचा हरिहर प्रसाद पांडेय ने की। उसके बाद वह अपने पिताजी के पास मुंबई चले आए। उनके पिताजी राममनोहर रेलवे कर्मचारी थे। माता की मौत के बाद सेठ बाबू अपने पिता के साथ मुंबई के परेल में रहने लगे।

बड़ा ही दिलचस्प है दूध के व्यवसाय शुरू करने की कहानी
उन्होंने बहुत ही कम उम्र से दूध का व्यवसाय शुरू किया और घर-घर दूध पहुंचाने लगे। उन दिनों परेल में इतनी आबादी नहीं थी। इमारतें बनकर खड़ी थीं, लेकिन रहने वाले लोग नहीं थे। दुकानें खाली रहती थी। सुबह पिता के घर से जाने के बाद सेठ बाबू अकेले ही होते थे। इसीलिए वह सामने वाली बिल्डिंग के फुटपाथ पर बैठकर समय बिताते थे। जिस बिल्डिंग के फुटपाथ पर बैठकर दिन व्यतीत करते थे, एक दिन उस बिल्डिंग के मैनेजर ने उनसे पूछा- कहां रहते हो? जब उन्होंने अपने सामने वाली बिल्डिंग में रहने की बात बताई और सुबह घर-घर दूध पहुंचाने की बात बताई, तो उस मैनेजर ने कहा कि अगर तुम यही रहते हो, तो इन दुकानों को देख लिया करो। ऐसे ही महीने बीत गए। तब एक दिन उसी मैनेजर ने कहा कि जब दिनभर यही रहते हो और सुबह दूध का व्यवसाय करते हो तो इसी बिल्डिंग में एक दुकान ले लो और दिन में व्यवसाय करो। चूंकि उस समय उम्र बहुत कम थी, इसीलिए वे निर्णय नहीं ले पा रहे थे। बाद में उसने कहा कि कुछ पैसे डिपॉजिट का कमाकर दे देना। यही से वह दुकान भी उनका हुआ और उन्होंने बकायदे दूध का व्यवसाय शुरू किया। इसके कुछ दिनों बाद उस मैनेजर ने कहा कि दुकान का एक रसीद फाड़ देता हूं। इसके बाद से सेठ बाबू ने उसी दुकान में रहना और व्यवसाय करना शुरू किए। जीवन के अंतिम समय तक उनका नाता जहांगीर बिल्डिंग में स्थित दुकान से रहा। वे सुबह लोगों के घर पर दूध पहुंचाने के साथ ही पढ़ाई भी किया करते थे। सेठ बाबू परेल से लेकर कल्याण तक पढ़ाई के लिए जाते थे।

समाजसेवा भी सबसे अलग
उनका दुकान केईएम अस्पताल के ठीक सामने वाली गली में थी। इसमें दूध, चाय, कोल्ड्रिंग आदि का व्यवसाय करते थे। केईएम अस्पताल में यूपी-बिहार से आने उपचार कराने के लिए आने वाले मरीजों की संख्या बहुत अधिक थी। उनके सामने समस्या रहने और मरीज को गरम दूध देने की बहुत आती थी। मरीजों के परिजन को दूध गर्म करवाने के लिए अस्पताल के सामने बार-बार मिन्नतें करनी पड़ती थी और लोग दूध गर्म करने के लिए पैसे भी लेते थे। मरीजों के परिजनों को होने वाली दिक्कतों को देखते हुए उन्होंने यह ठान लिया कि वह ऐसे मरीजों की मदद करेंगे। समाजसेवा की भावना हमेशा उनके दिल में रहती थी, इसीलिए उन्होंने लोगों से कह दिया कि अगर किसी को दूध गर्म करने में कोई दिक्कत आए, तो उसे मेरे पास भेज दें। इसके बाद से जिनको भी दूध गर्म करवाने की आवश्यकता पड़ती थी, वह आ जाता था और उसे उसका दूध गर्म करके दे देते थे। यहां एक विशेष बात यह है कि वे खुद तबेले के दूध का व्यवसाय करते थे, लेकिन कभी भी किसी मरीज के परिजन को नहीं कहे कि वह मेरे यहां से दूध खरीदें। वे बताते थे कि अगर किसी परिजन को कहता कि दूध मेरे यहां से लो, तो उन्हें बुरा लगता और उन्हें यह भी लगता कि कहीं दूध में पानी तो नहीं मिलाए होंगे। इसलिए मरीज के परिजन जो भी दूध लेकर आते थे, उनके सामने ही उनका दूध गर्माकर देना ठीक लगता था। इससे उन्हें भी कोई शंका नहीं रहती थी। साथ ही, इस दूध को गरमाने में बहुत अधिक मिट्टी का तेल नहीं लगता था जो उनसे पैसा वसूल किया जाए।

बड़े बेटे की मौत से लगा था सदमा
उनकी पत्नी जिरवंती देवी का निधन 1998 में कैंसर से हुआ था। उसके बाद 2005 में बड़े बेटे श्रद्धानंद पांडेय की मौत से उन्हें सदमा लगा था। वे बड़े बेटे की मौत के बाद जीवन के अंतिम समय तक अधिकतर समय बड़े बेटे के पुत्र पत्रकार नवीन पांडेय और विनय पांडेय के साथ ही रहते थे।

दादाजी बहुत याद आओगे: नवीन
चले गए दादाजी, अब बस स्मृति रह गई। मन बहुत बेचैन है। उनके जाने के बाद एक पीढ़ी समाप्त हो गई। 15 साल पहले जब पिताजी दुनिया से विदा हुए, आज दादाजी भी ईश्वर में लीन हो गए। अब उनकी स्मृति के सहारे जीने की आदत डालनी होगी। जब कभी वे किसी बात पर परिवार में किसी भी सदस्य पर नाराज होते थे, तो उन्हें मनाने का जिम्मा मुझ पर होता था। बस एक बार कहने में मान भी जाते थे। ऐसे दादाजी को आज मैंने खो दिया। अब मैं उन्हें कभी मना नहीं पाऊंगा।
आज मैं निशब्द हो गया हूं। कुछ लिख नहीं पा रहा हूं। बस कोरोना काल में उनकी मौत ने झकझोर दिया। कोरोना काल में बीमार होना मतलब कोरोना पॉजिटिव हो जाना जैसे है। डॉक्टरों ने उनका भी कोरोना जांच कराया और उनका रिपोर्ट कल ही रात को निगेटिव आया। तब लगा था कि दादाजी का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है, लेकिन आज दोपहर में ईश्वर ने मेरे दादाजी को अपने पास बुला लिया। उनकी कमी बहुत खलेगी। उनको लेकर कई योजनाएं थी, लेकिन अब वे कभी पूरी नहीं हो पाएंगी।
दादाजी बहुत याद आओगे। आपने साथ छोड़ दिया, बस, यही एक शिकवा है आपसे। पितृरूप में आशीर्वाद बनाए रखना।
आपको विनम्र श्रद्धांजलि!